राज्य

माँ

डॉ. कुमुद बाला मुखर्जी व्दारा लिखित कविता

माँ
सृजनकर्त्री
ईश्वर का स्वरूप
वात्सल्य की देवी
धैर्य और ममत्व की अमूल्य निधि
फिर भी कभी – कभी
संतानों में फर्क करना पड़ता है।
क्योंकि मैं माँ हूँ।

माँ बनना इतना आसान नहीं
सबके तानों के बीच
स्वयं को मज़बूत बनाना पड़ता है
मस्तिष्क और दिल के बीच की जंग को
मूक , बधिर और नेत्रहीन होकर
सहते हुए चलना पड़ता है –
क्योंकि मैं माँ हूँ।

भ्रूण में पल रहे दोनों बच्चे
अलग लिंग के अगर हुए
तो बच जाती है बेटी की जान
वरना समाज और घर के दबाव में
घुट जाती हैं उसकी साँसें
और दम तोड़ देती है जिंदगी
चुपचाप तकती रहती है माँ।

माँ के बराबर कोई नहीं
माँ जैसी भी कोई नहीं
वह दुखियारी हो या हो समृद्ध
ममता का नहीं कोई बँटवारा
बच्चों के भविष्य पर टिकी आशाएँ
नयनों में कुछ स्वप्न लिए
शिक्षा को करती है प्रणाम
क्योंकि वह माँ है।

संतान होनहार हो तो माँ गर्वित
संतान दुष्कर्मी हो तो माँ लज़्ज़ित
संतान अधर्मी हो तो माँ पीड़ित
संतान मानसिक रोगी , निर्बल तो माँ निष्कासित
हर दोषारोपण को चुपचाप सहती है ,
क्योंकि वह माँ है।

धरती- प्रकृति- नदी और अटवी
ये सभी माताएँ पर भाग्यचक्र की मारी
ईश्वर तक शीश नवाते हैं माँ के आगे
इंसान जन्म लेता है जिसकी कोख से
उसे ही दूषित करता और महान बनता है ,
मां को सबकुछ सहना पड़ता है ,
क्योंकि वह माँ है।

विधि का यह कैसा विधान है ?
क्या इसका कोई समाधान है ?
या फिर माँ के हिस्से में दुःख की चादर
क्या यही विधि निर्मित संविधान है ?
माँ फिर भी निर्वाह करती है ,
दहलीज़ , रिश्ते और बच्चों की परवाह करती है ,
क्योंकि वह माँ है।
डॉ कुमुद बाला

पिता

मैंने 9 महीने पेट में नहीं रखा
एक माता की तरह
पर रखा अपने बच्चों से
ज़िंदगी भर का रिश्ता
क्योंकि मैं पिता हूँ

मैं चलता चला ,
सुख की राह सरल होती है
और दुःख की राह में गरल ही गरल भरे होते हैं
लेकिन मैं –
हर काँटों भरी राहों से काँटे हटाता गया
तूफानों से लड़कर दीप जलाता गया
मुसीबतों से जीत स्वयं को मजबूत बनाता गया
क्योंकि मैं पिता हूँ

वक्त के साथ ढलता गया
सूरज को साथ ले चलता रहा
रात को सितारों से बातें हुईं
थाली में चाँद तुम्हारे लिए रखता रहा
समय के साथ मेरी उम्र भी बढ़ने लगी
किंतु मैं रुका नहीं
किसी के आगे झुका नहीं
क्योंकि मैं पिता हूँ

जब तुम्हें ठोकर लगी , मैं रोया
दिल के जख्म को दुनिया से छुपाया
और धैर्य को साथ रखकर
तुम्हारे लिए रास्ते बनाता रहा
पर कभी मैंने नहीं जतलाया
अपनी आँखों के आँसू कभी न दिखाया
एक पाषाण की मूरत की तरह
मैं खड़ा रहा , निश्चल और निडर
क्योंकि मैं पिता हूँ

कठोर दिखता हूँ पर फूलों से नर्म हूँ
मेरी ज़िंदगी तुम और मैं उसका मर्म हूँ
हाँ , हूँ मैं पुरुष तो क्या ?
दिल तो मेरे भी सीने में भी है
लिंगभेद मैं करना नहीं चाहता
किंतु समाज के बंधनों के आगे
मैं ज्ञानी होकर भी विवश हो जाता हूँ
क्योंकि मैं पिता हूँ

बेटी के भविष्य के लिए हुआ हूँ चिंतित
हर दुष्कर्म से रक्षा करना चाहता हूँ
वह कंधे पर मेरे बोझ नहीं
उसे पढ़ालिखा कर मजबूत बनाना चाहता हूँ
हाँ , मानता हूँ
कभी – कभी निर्णय गलत हो जाते हैं
यह मेरी ही सोच का दोष है
क्योंकि मैं पिता हूँ

मगर फिर भी
समय के साथ मैं भी
बदलने की कोशिश कर रहा हूँ
मैं नदी नहीं कि बहता चला जाऊँ
मैं तो एक ठहरा हुआ समुद्र हूँ ,
जड़वत हूँ हिमालय की तरह
और बच्चों के लिए पिता हूँ।

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