मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
लक्ष्यभेद,अंकित कर पदचिह्न,आगे ही बढ़ती मैं निर्झरिणी,
कुलाँचे मारती , दीप सजाती, संस्कृति बतियाती मैं हरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
चंचल,चपला,तीव्रा ,शीघ्रा, शिवधारिणी, मैं पवित्र गंगा
लेकर जगत की पाप पोटली,सागर से मिलती जा बंगा
जल को गंदा कहने वाले , तू ऊपर से नीचे तक गंदा
पापहारिणी,पापमोचनी मुझको कह , करता गंदा धंधा
यमुना की सहेली पाप न लेती,धारा उद्धरिणी, वैतरिणी,
लक्ष्यभेद,अंकित कर पदचिह्न,आगे बढ़ती मैं निर्झरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
सिंधु,चेनाब,सतलुज की सखी मैं नदिया कृष्णा,कावेरी
नर्मदा के जल में शंकर व गंडकी ने शालिग्राम उकेरी
ब्रह्मपुत्र संग बिहु सोहता व तीरे गोमती अयोध्या नगरी
भाषा -संस्कृति का शंखनाद कर,बाट जोहती गोदावरी
इंसानों ने बाँटे घाट-घाटियाँ ,नदियाँ सदियों से तरंगिणी,
लक्ष्यभेद,अंकित कर पदचिह्न,आगे बढ़ती मैं निर्झरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
नदियों के मुहाने जाने , कितनी सभ्यताएँ थीं , हैं बसतीं
उन्नत सभ्यताओं संग जीवित , हमारी कहानियाँ हैं हँसतीं
विविध भाषाएँ,संस्कृति की खुशबू,जग को उप्लावित करतीं
धरोहर – विरासत की गूँज , मंदिरों की घंटियों संग गूंजती
आशीर्वाद ले मैया तुलसी का , हम नदियाँ जग तारिणी,
लक्ष्यभेद,अंकित कर पदचिह्न,आगे बढ़ती मैं निर्झरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
हमने अपना धर्म निभाया पर , तुमने हमें किया कलंकित
तुमने गंदी लुटिया डुबोकर , स्वच्छ नीर को किया प्रदूषित
हमारे गर्वित हृदय को चीर,किया प्रकृति को क्यों लज़्ज़ित ?
विकास की सीढ़ी चढ़कर जंगलों को,तुमने किया तिरोहित
पीट रही धरा सिर अपना,कहते हो जिसको तुम माँ-भगिणी,
लक्ष्यभेद , अंकित कर पदचिह्न ,आगे बढ़ती , मैं निर्झरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।
स्वार्थ प्रकृति के तुम इंसान,भरी है हिय में झूठ-मक्कारी
नारी को भोग्या कहनेवाले , देवीपूजन की करते तैयारी
माँ !कह मूर्ख बनाते और घुँघरू बाँध , बनते हो शिकारी
पलायन की हमने कर ली तैयारी,छोड़ पाप-गठरी तुम्हारी
हमें भगीरथ नहीं चाहिए,हम हैं अपनी दुनिया की लावणी,
लक्ष्यभेद , अंकित कर पदचिह्न ,आगे बढ़ती मैं निर्झरिणी।
मैं निर्झरिणी,मैं हरिणी।।